30 अक्टूबर 1990..."रामलला हम आएंगे, मंदिर यहीं बनाएंगे" के नारों से अयोध्या गूंज रही थी। सड़क पर या तो भगवा पहने कारसेवक थे या संगीनों के साथ खाकी वर्दी पहने पुलिस वाले। बाबरी मस्जिद के डेढ़ किमी के दायरे को पुलिस ने बैरिकेट कर रखा था। कहीं से भी कोई आवाजाही नहीं थी। घर की छतों पर पुलिस तैनात थी। लेकिन, कारसेवक रामलला तक पहुंचने के लिए अड़े हुए थे।
हजारों की संख्या में जब कारसेवक हनुमान गढ़ी के आगे गलियों से होते हुए राम जन्मभूमि की ओर बढ़े तो सुरक्षाकर्मियों ने गोली चला दी। ये गोली तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के आदेश पर चलाई गई थी। गोली की वजह से अयोध्या के रहने वाले 5 कारसेवकों की मौत हो गयी।
यह सभी गरीब परिवारों से थे। कोई टोकरी बनाता था तो कोई रिक्शा चलाता था। अब 2020 में अयोध्या में मारे गए उन 5 कारसेवकों में से 3 के परिवार रहते है। उनसे मिलकर हमने उनका हाल जाना।
पहली कहानी: घर गिरवी रखा है, बच्चों की फीस भरने का भी पैसा नही है
अयोध्या के कजियाना मोहल्ले में राजेन्द्र धनकार का घर है। घर के सामने थोड़ी सी जमीन है, जिसमें बड़ा सा पेड़ है। और पीछे घर है। घर की चौड़ाई लगभग 40 फिट होगी लेकिन, अंदर से घर थोड़ा छोटा है। सामने ही राजेन्द्र के छोटे भाई रविन्द्र मिले।
बातचीत में उन्होंने बताया कि उस समय मेरी उम्र 8 या 10 साल रही होगी। 30 अक्टूबर 1990 से कुछ दिन पहले ही कारसेवक अयोध्या पहुंच रहे थे। 30 अक्टूबर को सुबह 7 से 8 बजे का समय था। कुछ लोग भीड़ के साथ जयश्री राम के नारे लगाते हुए आये और भैया को बुलाया। उस समय भाई की उम्र 16 या 17 साल रही होगी।
उन्होंने भी माथे पर भगवा लपेटा और नारे लगाते हुए निकल गए। मैं भी उनके पीछे भागा, लेकिन मां ने मुझे रोक लिया तो मैं वापस आ गया। बाद में पता चला कि गोली चल गई है। फिर उस समय विहिप ने 1 लाख रुपए की मदद की थी। हालांकि, पिता जी ने किसी के कहने पर उस समय किसी चिटफंड कंपनी में पैसे लगा दिए और वह कंपनी भी भाग गई।
चूंकि, हम लोगों की आर्थिक स्थिति पहले भी बहुत अच्छी नही थी। बांस की टोकरी वगैरह ही बनाने का काम था तो वही चल रहा था। अभी 10 साल हुआ माता जी को गुजरे हुए। पिता को पैरालिसिस का अटैक हुआ तो इलाज में काफी पैसे खर्च हुए। कर्ज लेने के लिए 4 कमरों का घर गिरवी रखना पड़ा।
उस घर में 3 किरायेदार रख रखे हैं। 300 रुपये कमरे का किराया है। एक कमरे की छत टूटने को है तो उसे किराए पर नही उठाया है। जिस कमरे में मैं रहता हूँ, दस साल से ज्यादा हुआ पुताई नहीं करवा पाया हूँ। कमरे में ही खाना बनता है इसलिए छत और दीवार काली पड़ गयी है।
रविन्द्र की पत्नी सोनी कहती है कि हमारे छह बच्चे हैं। 2 लड़कियां 8वीं पास कर चुकी हैं तो एक प्राइवेट स्कूल में नाम लिखा दिया, लेकिन लॉकडाउन की वजह से किरायेदार भी भाग गए और टोकरी वगैरह भी बिकनी बन्द हो गयी। जिससे हम इस समय पैसे पैसे के मोहताज हो गए हैं। बच्चों की स्कूल फीस नही जमा कर पा रहे हैं।
कभी-कभी भूखे पेट भी सोना पड़ा। इस समय 3-4 दिन में कहीं 100-200 की कमाई हो जाती है। रविन्द्र ने कहा जब भैया के मरने पर विहिप ने सम्मान किया था, उसके बाद हमें पलटकर भी नही पूछा। हम यहां के वर्तमान भाजपा विधायक के पास भी गए, लेकिन वह मिले ही नही। अब बेटियों की शादी कैसे करूंगा यह भी नही समझ आ रहा है। हालांकि, रविन्द्र कहते है कि श्री राम का मंदिर बनने जा रहा है। यही सबसे बढ़िया बात है। भैया का बलिदान बेकार नही गया।
दूसरी कहानी: जब महिलाएं बाहर नहीं निकलती थी, तब मां ने दुकान संभाल कर हमें पढ़ाया लिखाया
हनुमान गढ़ी से लगभग डेढ़ दो किमी दूर नया घाट मोहल्ला में मुख्य सड़क पर ही संदीप गुप्ता की कपड़ों की दुकान है। संदीप गुप्ता के पिता वासुदेव गुप्ता की भी मौत 30 अक्टूबर 1990 को कारसेवा के दौरान ही हुई थी। दुकान पर बैठे संदीप ने बताया जब पिता जी की मौत हुई तो मेरी उम्र काफी कम थी।
मुझे बताया गया कि उस समय न तो रिश्तेदार हमारी मदद को खड़े हुए न ही हमारे दादा-दादी। उसी समय से हम लोग अलग रह रहे हैं। मुझे याद है मेरी माँ शकुंतला उस समय घूंघट डाले रहती थी लेकिन हम लोगों को पालना था तो वह दुकान पर बैठने लगी।
पहले पिता जी मिठाई की दुकान चलाते थे। बाद में जब मां ने दुकान ने संभाली तो कपड़ों की दुकान खोली। धीरे-धीरे खर्चा पानी चलता रहा। हम लोगों को पढ़ाया। एक बहन की शादी हो गयी है। एक बहन अभी घर पर है। हम दोनों भाई बहन ग्रेजुएशन किये हुए हैं। हमारी कहीं नौकरी नहीं लगी तो हम मां के साथ दुकान पर बैठने लगे।
लॉकडाउन में तो हम लोगों की हालत और खराब हो गयी है। धार्मिक शहर में जब कोई आएगा ही नही तो कुछ बिकेगा ही नही। अब मंदिर बन रहा है मेरी यही अपील है ट्रस्ट से कि हम लोगों को भी कुछ काम दे दिया जाए। ताकि हम लोगों की भी रोजी-रोटी चल सके।
तीसरी कहानी: 30 साल पहले हुई थी विधवा, अब बच्चों की बेरुखी डराती है
हनुमान गढ़ी से लगभग 500 मीटर दूर रानी मोहल्ले में गायत्री देवी का घर है। 1990 में कारसेवा के दौरान इनके पति रमेश पांडेय की भी जान चली गयी थी। विहिप ने तब 10 लाख से ज्यादा रुपयों से इस परिवार की मदद भी की थी लेकिन एक विधवा ने अपने परिवार को उन्हीं रुपयों से संभाला और संवारा लेकिन बुढ़ापे में उसे थोड़े-थोड़े पैसों के लिए भी दूसरों का मुंह देखना पड़ रहा है।
यह बताते बताते 55 साल की गायत्री की आंखों में आंसू आ जाते हैं। घर के दरवाजे पर टिकी गायत्री कहती हैं कि 13-14 साल की उम्र रही होगी जब मेरी शादी हो गयी थी। 10-15 बरस बीते होंगे जब पति भरा पूरा परिवार छोड़ कर चले गए।
दो बेटे और दो लड़कियां और हमारी सास को पीछे छोड़ गए थे। हमको समझ नहीं आ रहा था कि अब आगे कैसे और क्या करेंगे। पति हमारे एक ईंट भट्ठे पर मुंशी थे जिंदगी आराम से चल रही थी। लेकिन, बाद में दिक्कत हो गयी। तब विहिप ने पैसों से मदद की। उसी से दो बेटियों की शादी की। दोनों बेटों को बड़ा किया। सास की दवाई पानी की। अब बड़ा बेटा कारसेवक पुरम में ही नौकरी करता है।
जबकि दूसरा बेटा भी कहीं प्राइवेट जॉब करता है। बड़ा बेटा अलग रहता है। मैं छोटे बेटे के साथ रहती हूँ। अब बुढ़ापा आ गया है। पैसे खत्म हो चुके हैं। थोड़े-थोड़े पैसों के लिए अब किसी का मुंह देखना अच्छा नही लगता है। चिंता रहती है कि कैसे आगे की जिंदगी कटेगी। गायत्री संभलते हुए कहती है कि चलो सबसे अच्छा हुआ कि राममंदिर बनने जा रहा है। हो सकता है कि हम लोगों को भी निमंत्रण मिले।
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