इलाहाबाद से 15 किलोमीटर अंदर गांव है कोडसर। सुबह पांच बजे दिन जैसा उजाला हो चुका है। मक्के की लहलहाती फसल, कोयल की आवाज और ठंडी हवा में मुंबई से गांव लौटी ललिता यादव डिबरी से चूल्हा जला रही हैं। वो हमारे लिए काढ़ा बना रही हैं। मुंबई के पॉश एरिया वर्ली में रहने वाला ललिता का परिवार दस दिन पहले मुंबई से गांव लौटा है। यादव परिवार मुंबई में पांच पीढ़ियों से बर्फ के बड़े कारोबारियों में शुमार हैं।
इस परिवार में कुल छह भाई हैं। लेकिन कभी किसी भी मौके पर ऐसा नहीं हुआ कि सभी एक साथ इकट्ठा हुए हों। मुंबई में रहने वाले सुभाष यादव बताते हैं, "शादी ब्याह में भी कारोबार की वजह से एक या दो भाई मुंबई में रह जाते थे या सुबह की फ्लाइट से आए और शाम को लौट गए। लेकिन ऐसा पहली दफा हुआ है कि पूरा यादव परिवार एक साथ एक छत के नीचे इकट्ठा है।"
इसका श्रेय यादव परिवार कोरोना महामारी को देते हैं। सुभाष यादव के मुताबिक, साल 1890 में इनके पूर्वज गांव से मुंबई गए थे। तब से ही इस परिवार का मुंबई में कारोबार है। बड़े तो बड़े इनके बच्चों को भी गांव में रहना अच्छा लग रहा है।
ललिता यादव कहती हैं, "परिवार एक हो गया है। शांति मिली, भाग दौड़ की जिंदगी में थोड़ा रुककर सुख मिला।" ललिता के अनुसार मुंबई में सब कुछ समय पर करना होता था। सुबह समय पर पानी भरने उठो, समय पर बच्चों को उठाओ, नहाना धोना करो। लेकिन यहां कभी भी उठो हैंडपंप से कभी भी पानी भर लो।"
सुभाष यादव बताते हैं कि फिलहाल हम सभी भाइयों में से जो तीन भाई और उनका परिवार मुंबई में रहता है, वो लोग क्वारैंटाइन हैं। पुश्तैनी घर के पास ही एक पुराना बना हुआ घर है जो व्यवस्थित नहीं है। लेकिन कोरोना ने ऐसा सबक दे दिया है कि रहो कहीं भी, कमाओ कहीं भी लेकिन अपने गांव देहात में अपनी जड़ें मजबूत होनी ही चाहिए। अपना गांव-देहात में घर होना ही चाहिए। क्या पता शहर कब रुखसत कर दे।
सुभाष के साथ मुंबई में रहने वाले छोटे भाई विक्रमादित्य ने गांव आने पर घर में कई तरह के फूलों के पौधे लगाए। इनके बेटे अमन को बहुत पसंद है कि घर में सब लोग एक साथ खाना खाते हैं। उसे चूल्हा जलाने का इतना शौक है कि वह बात बात पर चूल्हा जलाने लगता है। इनकी बेटी तान्या इस बात से खुश हैं कि बैडमिंटन खेलने के लिए उसे किसी बैडमिंटन कोर्ट में नहीं जाना पड़ता है। किसी भी खेत में खेलो।
तान्या का कहना है कि पहले हम लोग छुटिटयों में ही गांव आते थे लेकिन इस दफा का आना बहुत अलग है। चूल्हे पर मां जो सब्जी बनाती है उसे हम खुद खेत से तोड़कर लाते हैं।
मुंबई से लौटी ललिता की देवरानी बताती हैं मुंबई में 80 रुपये किलो लौकी, 80 रुपये किलो तोरई, भिंडी आदि है लेकिन यहां 5 रुपये किलो सब्जी मिल रही है वह भी खेत की ताजी। हवा एकदम शुद्ध। मुंबई में जितनी कमाई वैसे खर्चे। भाई अशोक बताते हैं कि भाग है हमारा कि हम गांव लौटे और पूरा परिवार एक साथ है। नहीं तो कभी एक साथ वक्त गुजारना हुआ ही नहीं। कमाई धंधों में ही जिंदगी बीत गई। वह बताते हैं कि अब यह भी पता लगा है कि साथ गुजारने के लिए वक्त निकालना इतना मुश्किल भी नहीं था जितना हमने बना लिया था।
भाई राजकुमार इस गांव के प्रधान भी हैं। वह कह रहे हैं गांव का वातावरण, मेलजोल, मिलाप, दुखसुख शहरों में हो ही नहीं सकता और कोरोना ने शहरों का बेरहम चेहरा और ज्यादा बेनकाब कर दिया है।
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